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स॒मा॒न्या वियु॑ते दू॒रेअ॑न्ते ध्रु॒वे प॒दे त॑स्थतुर्जाग॒रूके॑। उ॒त स्वसा॑रा युव॒ती भव॑न्ती॒ आदु॑ ब्रुवाते मिथु॒नानि॒ नाम॑॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

samānyā viyute dūreante dhruve pade tasthatur jāgarūke | uta svasārā yuvatī bhavantī ād u bruvāte mithunāni nāma ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

स॒मा॒न्या। वियु॑ते॒ इति॒ विऽयु॑ते। दू॒रेअ॑न्ते॒ इति॑ दू॒रेऽअ॑न्ते। ध्रु॒वे। प॒दे। त॒स्थ॒तुः॒ जा॒ग॒रूके॑। उ॒त। स्वसा॑रा। यु॒व॒ती इति॑। भव॑न्ती॒ इति॑। आत्। ऊँ॒ इति॑। ब्रु॒वा॒ते॒ इति॑। मि॒थु॒नानि॑। नाम॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:54» मन्त्र:7 | अष्टक:3» अध्याय:3» वर्ग:25» मन्त्र:2 | मण्डल:3» अनुवाक:5» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब शिष्य के विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो (युवती) यौवन अवस्था को प्राप्त हुई (स्वसारा) भगिनी (भवन्ती) वर्त्तमान (मिथुनानि) जोड़ों को (नाम) संज्ञा को (ब्रुवाते) कहती हैं (समान्या) तुल्य स्वभाववाली (वियुते) मिली और नहीं मिली हुई (दूरेअन्ते) दूर और समीप में (ध्रुवे) दृढ़ (पदे) प्राप्त होने योग्य (उत) भी (जागरूक) प्रसिद्ध अन्तरिक्ष और पृथिवी (तस्थतुः) स्थित हैं उनको (उ) और जानने के (आत्) अनन्तर ऐश्वर्य को प्राप्त होना चाहिये ॥७॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे प्रेम से युक्त भगिनीजन मनोवाञ्छित वचनों को कहती हैं और जोड़े वर्त्तमान हैं, वैसे ही दूर और समीप में वर्त्तमान प्रकाश और अप्रकाश से युक्त लोक इस संसार में वर्त्तमान हैं ॥७॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ शिष्यविषयमाह।

अन्वय:

हे मनुष्या ये युवती स्वसारा भवन्ती मिथुनानि नाम ब्रुवाते इव समान्या वियुते दूरेअन्ते ध्रुवे पदे उतापि जागरूके द्यावापृथिव्यौ तस्थतुस्ते उ विदित्वादैश्वर्य्यं लब्धव्यम् ॥७॥

पदार्थान्वयभाषाः - (समान्या) समानस्वभावे (वियुते) मिश्रिताऽमिश्रिते (दूरेअन्ते) विप्रकृष्टे समीपे च (ध्रुवे) दृढे (पदे) प्रापणीये (तस्थतुः) तिष्ठतः (जागरूके) प्रसिद्धे (उत) अपि (स्वसारा) भगिन्यौ (युवती) प्राप्तयौवनावस्थे (भवन्ती) वर्त्तमाने (आत्) आनन्तर्ये (उ) (ब्रुवाते) वदतः (मिथुनानि) युग्मानि (नाम) सञ्ज्ञा ॥७॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा प्रेमयुक्ता स्वसारोऽभीष्टानि वचनानि ब्रुवन्ते मिथुनानि वर्त्तन्ते तथैव दूरसमीपस्थाः प्रकाशाऽप्रकाशयुक्ता लोका अस्मिन् जगति वर्त्तन्ते ॥७॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जशा प्रेमाने युक्त भगिनीगण मनोवाञ्छित वचन बोलतात व जोडीने राहतात तसेच दूर व समीप असलेले प्रकाश व अप्रकाशयुक्त लोक या जगात असतात. ॥ ७ ॥